Wednesday 10 October 2018

Two Line Bewafa Shayari

Two Line Bewafa Shayari

Hum se bewafai ki inteha kya puchte ho "Mohsin",
Woh hum se pyaar seekhta raha kisi aur ke liye.
हम से बेवफाई की इन्तहा क्या पूछते हो "मोहसिन",
वो हम से प्यार सीखता रहा किसी और के लिए !

Woh jinki aankhon se chamakte the wafa ke moti,
Yakeen mano kasam le lo woh aankhein bewafa nikli.
वो जिनकी आँखों से चमकते थे वफ़ा के मोती,
यकीन मानो कसम ले लो वो आँखें बेवफा निकली !

Kuch toh rahi hongi inki bhi mazbooriyan,
Yun chaah ke koi bewafa nahi hota.
कुछ तो रही होंगी इनकी भी मज़बूरियां,
यूँ चाह के कोई बेवफा नहीं होता !

Meri neendein udaane wale,
Ab tere khawab kaun dekhega.
मेरी नींदें उड़ाने वाले,
अब तेरे ख़्वाब कौन देखेगा !

Aaj badi der tak woh mohabbat dikhata raha,
Na jane kyon laga ki woh mohabbat chhod jayega.
आज बड़ी देर तक वह मोहब्बत दिखता रहा,
न जाने क्यों लगा कि वह मोहब्बत छोड़ जायेगा !

Din agar laut bhi aayein to kya kariye,
Dil lagana to phir bhi usi sitamgar se hai.
दिन अगर लौट भी आये तो क्या करिये,
दिल लगाना तो फिर भी उसी सितमगर से है !

Bechain ho ke shouq woh mashooq ho gaye,
Jis par padi nigaah tere beqrar ki.
बेचैन हो के शौक़ वह माशूक़ हो गए,
जिस पर पड़ी निगाह तेरे बेक़रार की !

Uski bewafai pe bhi fida hoti hai jaan apni,
Khuda jaane agarr usmein wafa hoti toh kya hota.
उसकी बेवफाई पे भी फिदा होती है जान अपनी, 
खुदा जाने अगर उसमें वफ़ा होती तो क्या होता !

Alfaaz giraa dete hain jazbaat ki qeemat,
Har baat ko alfaaz mein tola na karo.
अल्फ़ाज़ गिरा देते हैं जज़्बात की क़ीमत,
हर बात को अल्फ़ाज़ में तोला न करो !

Nadangi ki hadh toh dekho mere sanam ki,
Aye doston mujhe kho kar mera jaisa khoj rahi hai.
नादानगी की हद तो देखो मेरे सनम की, 
ऐ दोस्तों मुझे खो कर मेरा जैसा खोज रही है !


Wednesday 3 October 2018

Dard-E-Dil Mein Kami Na Ho Jaaye..

Dard-E-Dil Mein Kami Na Ho Jaaye

Dard-e-dil mein kami na ho jaaye,
Dosti dushmani na ho jaaye.

Tum meri dosti ka dum na bharo,
Aasmaan muddai na ho jaaye.

Baithta hun humesha rindon mein,
Kahin zaahid wali na ho jaaye.

Apne khu-e-wafa se darta hoon,
Aashiqi bandagi na ho jaaye. !!

दर्द-ए-दिल में कमी न हो जाए,
दोस्ती दुश्मनी न हो जाए !

तुम मेरी दोस्ती का दम न भरो,
आसमान मुद्दे न हो जाए !

बैठता हूँ हमेशा रिन्दों में,
कहीं ज़ाहिद वाली न हो जाए !

अपने खु--वफ़ा से डरता हूँ,
आशिक़ी बंदगी न हो जाए !!


-- Bekhud Dehlvi



Saturday 29 September 2018

Juda Bhi Hone Ka Andesha Seh Nahi Sakte

Juda Bhi Hone Ka Andesha Seh Nahi Sakte

Juda bhi hone ka andesha seh nahi sakte,
Hum ek shehar mein ab khush bhi reh nahi sakte.

Yeh roz-o-shab hain humare ke ek dusre se,
Chupaye phirte hain ahwal, keh nahi sakte.

Shakist-e-zaat ka izhaar chahte bhi nahi,
Ajeeb haal hai, hum chup bhi reh nahi sakte.

Haqeeqton ki chattane bhi apni raah mein hain,
Khayal-o-khawb ke dariya mein beh nahi sakte.

Woh bekasoor hai, aesi bhi koi baat nahi,
Kasoorwar hain hum, yeh bhi keh nahi sakte. !!

जुदा भी होने का अंदेशा सेह नहीं सकते, 
हम एक शहर में अब खुश भी रह नहीं सकते !

यह रोज़-ओ-शब हैं हमारे के एक दूसरे से, 
छुपाये फिरते हैं अहवाल, कह नहीं सकते !

शाकिस्त-इ-ज़ात का इज़हार चाहते भी नहीं, 
अजीब हाल है, हम चुप भी रह नहीं सकते !

हक़ीक़तों की चट्टानें भी अपनी राह में हैं, 
ख्याल-ओ-खाव्ब के दरिया में बह नहीं सकते !

वह बेक़सूर है, ऐसी भी कोई बात नहीं, 
कसूरवार हैं हम, यह भी कह नहीं सकते !!


-- Aitbar Sajid



Friday 28 September 2018

Mirza Ghalib Two Lines Famous Shayari


Humko maloom hai jannat ki haqeeqat lekin,
Dil ko bahalaane ko "Ghalib" ye khayal achchha hai.
हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन,
दिल को बहलाने को "ग़ालिब" ये ख़याल अच्छा है !

Ishq ne "Ghalib" nikamma kar diya,
Warna hum bhi aadmi the kaam ke.
इश्क ने "गालिब" निक्कमा कर दिया, 
वर्ना हम भी आदमी थे काम के !

Umar bhar "Ghalib" yahi bhool karta raha,
Dhul chehare pe thi aur aaina saaf karta raha.
उम्र भर "ग़ालिब" यही भूल करता रहा,
धुल चेहरे पे थी और आइना साफ़ करता रहा !

Is saadagi pe kaun na mar jaye - e - khuda,
Ladate hai aur haath mein talwar bhi nahin.
इस सादगी पे कौन न मर जाए - ए - खुदा,
लड़ते है और हाथ मै तलवार भी नहीं !

Hazaaron khwahishen aisi ki har khwahish pe dam nikle,
Bahut nikle mere armaan, lekin phir bhi kam nikle.
हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमाँ, लेकिन फिर भी कम निकले !

Unke dekhe se jo aa jaati hai munh par raunak,
Wo samajhate hai ki beemaar ka haal achchha hai.
उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक,
वो समझते है की बीमार का हाल अच्छा है !

Dil-E-Nadan tujhe hua kya hai,
Aakhir is dard ki dava kya hai.
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है,
आखिर इस दर्द की दवा क्या है !

Zindagi mein to wo mehfil se utha dete the,
Dekhun ab mar gaye par kaun uthata hai mujhe.
ज़िन्दगी में तो वो महफ़िल से उठा देते थे,
देखूं अब मर गए पर कौन उठता है मुझे !

"Ghalib" bura na maan jo waiz bura kahe,
Aisa bhi koi hai ki sab achchha kahe jise.
"ग़ालिब" बुरा न मान जो वाइज बुरा कहे,
ऐसा भी कोई है की सब अच्छा कहे जिसे !

Ishq par zor nahin hai ye wo aatish "Ghalib",
Ki lagaye na lage aur bujhaye na bane.
इश्क पर जोर नहीं है ये वो आतिश "ग़ालिब",
की लगाए न लगे और बुझाए न बने !

Pine de sharaab masjid mein baith ke "Ghalib",
Ya Wo jagah bata jahaan khuda nahin hai !
पीने दे शराब मस्जिद में बैठ के "ग़ालिब",
या वो जगह बता जहाँ खुदा नहीं है !

khwahishon ka kaafila bhi ajeeb hi hai "Ghalib",
Aksar wahin se guzarata hai jahaan raasta nahin hota !
ख्वाहिशों का काफिला भी अजीब ही है "ग़ालिब",
अक्सर वहीँ से गुज़रता है जहाँ रास्ता नहीं होता !

Dard ho dil mein to dava keejiye,
Dil hi jab dard ho to kya keejiye..?
दर्द हो दिल में तो दवा कीजिये,
दिल ही जब दर्द हो तो क्या कीजिये..?

Puchhate hain wo ki "Ghalib" kaun hai..?
Koi batalao ki hum batalaayein kya !
पूछते हैं वो की "ग़ालिब" कौन है..?
कोई बतलाओ की हम बतलायें क्या !

Raat hai sanaata hai wahaan koi na hoga "Ghalib",
Chalo un ke daro-o-deevaar choom ke aate hain !
रात है सनाटा है वहां कोई न होगा "ग़ालिब",
चलो उन के दरो-ओ-दीवार चूम के आते हैं !

Tere husn ko parade ki zarurat nahin hai "Ghalib",
Kaun hosh mein rahata hai tujhe dekhane ke baad.
तेरे हुस्न को परदे की ज़रुरत नहीं है "ग़ालिब",
कौन होश में रहता है तुझे देखने के बाद !

Tu toh wo jaalim hai jo dil mein rah kar bhi mera na ban saka "Ghalib",
Aur dil Wo kaaphir jo mujh mein rah kar bhi tera ho gaya.
तू तो वो जालिम है जो दिल में रह कर भी मेरा न बन सका "ग़ालिब",
और दिल वो काफिर जो मुझ में रह कर भी तेरा हो गया !

Nikalana khud se aadam ka sunate aaye hain lakin,
Bahut beaabaroo ho kar tere kooche se ham nikale.
निकलना खुद से आदम का सुनते आये हैं लकिन,
बहुत बेआबरू हो कर तेरे कूचे से हम निकले !

Wednesday 19 September 2018

Munawwar Rana Complete Book Maa - A Heart Touching Poems Collection..

Munawwar Rana Complete Book Maa - A Heart Touching Poems Collection
पुस्तक   : माँ
लेखक     : मुनव्वर राना
मूल्य      : 25
प्रकाशक : वाली अस्सी अकादमी,8-फर्स्ट                         फ्लोर,एफआई! ढिंगरा अपार्टमेंट,
                 लखनऊ-226001, 
                 उत्तर प्रदेश,  भारत !

अपनी बात

शब्दकोशों के मुताबिक ग़ज़ल का मतलब महबूब से बातें करना है ! अगर इसे सच मान लिया जाए तो फिर महबूब “माँ” क्यों नहीं हो सकती ! मेरी शायरी पर मुद्दतों, बल्कि अब तक ज्यादा पढ़े-लिखे लोग Emotional Blackmaling का इल्ज़ाम लगाते रहे हैं। अगर इस इल्ज़ाम को सही मान लिया जाए तो फिर महबूब के हुस्न, उसके जिस्म, उसके शबाब, उसके रुख व रुख़सार, उसे होंठ, उसके जोबन और उसकी कमर की पैमाइश को अय्याशी क्यों नहीं कहा जाता है !
अगर मेरे शेर Emotional Blackmaling हैं तो श्रवण कुमार की फरमां-बरदारी को ये नाम क्यों नहीं दिया गया? जन्नत माँ के पैरों के नीचे है, इसे गलत क्यों नहीं कहा गया? मैं पूरी ईमानदारी से इस बात का तहरीरी इकरार करता हूँ कि मैं दुनिया के सबसे मुक़द्दस और अज़ीम रिश्ते का प्रचार सिर्फ़ इसलिए करता हूँ कि अगर मेरे शेर पढ़कर कोई भी बेटा “माँ” की ख़िदमत और ख़याल करने लगे, रिश्तों का एहतेराम करने लगे तो शायद इसके बदले में मेरे कुछ गुनाहों का बोझ हल्का हो जाए।
ये किताब भी आपकी ख़िदमत तक सिर्फ़ इसलिए पहुँचाना चाहता हूँ कि आप मेरी इस छोटी-सी कोशिश के गवाह बन सकें और मुझे भी अपनी दुआओं में शामिल करते रहें।
ज़रा-सी बात है लेकिन हवा को कौन समझाये, 
दिये से मेरी “माँ” मेरे लिए काजल बनाती है !
इस किताब की बिक्री से हासिल की गई तमाम आमदनी “माँ फ़ाउण्डेशन” की ओर से ज़रूरतमन्दों की इमदाद के लिए ख़र्च की जाएगी ! --मुनव्वर राना

तमाम उम्र ये झूला नहीं उतरता है

मेरी माँ बताती है कि बचपन में मुझे सूखे की बीमारी थी, माँ को यह बताने की ज़रूरत क्या है..? मुझे तो मालूम ही है कि मुझे कुछ-न-कुछ बीमारी ज़रूर है क्योंकि आज तक मैं बीमार सा हूँ ! दरअस्ल मेरा जिस्म बीमारी से रिश्तेदारी निभाने में हमेशा पेशपेश रहा है ! शायद इसी सूखे का असर है कि आज तक मेरी ज़िन्दगी का हर कुआँ खुश्क है.. आरजू का, दोस्ती का, मोहब्बत का, वफ़ादारी का ! 
माँ कहती है बचपन में मुझे हँसी बहुत आती थी.. हँसता तो मैं आज भी हूँ लेकिन सिर्फ़ अपनी बेबसी पर, अपनी नाकामी पर, अपनी मजबूरियों पर और अपनी तनहाई पर.. लेकिन शायद यह हँसी नहीं है, मेरे आँसुओं की बिगड़ी हुई तस्वीर है, मेरे अहसास की भटकती हुई आत्मा है ! मेरी हँसी “इंशा” की खोखली हँसी, “मीर” की ख़ामोश उदासी और “ग़ालिब” के जिद्दी फक्कड़पन से बहुत मिलती-जुलती है !
मेरे हँसी तो मेरे ग़मों का लिबास है,
लेकिन ज़माना इतना कहाँ ग़म-शनास है !
पैवन्द की तरह चमकती हुई रौशनी, रौशनी में नज़र आते हुए बुझे-बुझे चेहरे, चेहरों पर लिखी दास्तानें, दास्तानों में छुपा हुआ माज़ी, माज़ी में छुपा हुआ मेरा बचपन, जुगनुओं को चुनता हुआ बचपन, तितलियों को पकड़ता हुआ बचपन, पे़ड़ की शाखों से झूलता हुआ बचपन, खिलौनों की दुकानों को ताकता हुआ बचपन, बाप की गोद में हँसता हुआ बचपन, माँ की आगोश में मुस्कुराता हुआ बचपन, मस्जिदों में नमाज़ें पढ़ता हुआ बचपन, मदरसों में सिपारे रटता हुआ बचपन, झील में तैरता हुआ बचपन, धूल-मिट्टी से सँवरता हुआ बचपन, नन्हें-नन्हें हाथों से दुआएँ माँगता हुआ बचपन, गुल्ले से निशाने लगाता हुआ बचपन, पतंग की डोर में उलझा हुआ बचपन, नींद में चौंकता हुआ बचपन, ख़ुदा जाने किन भूल-भुलैयों में खोकर रह गया है, कौन संगदिल इन सुनहरे दिनों को मुझसे छीनकर ले गया है, नदी के किनारे बालू से घरौंदे बनाने के दिन कहाँ खो गए, रेत भी मौजूद है, नदी भी नागिनों की तरह बल खा कर गुज़रती है लेकिन मेरे यह हाथ जो महल तामीर कर सकते हैं, अब घरौंदे क्यों नहीं बना पाते, क्या पराँठे रोटियों की लज़्ज़त छीन लेते हैं, क्या पस्ती को बलन्दी अपने पास नहीं बैठने देती, क्या अमीरी, ग़रीबी का ज़ायक़ा नहीं पहचानती, क्या जवानी बचपन को क़त्ल कर देती है..?
मई और जून की तेज़ धूप में माँ चीखती रहती थी और बचपन पेड की शाखों पर झूला करता था, क्या धूप चाँदनी से ज्यादा हसीन होती है, माचिस की ख़ाली डिबियों से बनी रेलगाड़ी की पटरियाँ चुराकर कौन ले गया, काश कोई मुझसे कारों का ये क़ाफ़िला ले ले, और इसके बदले में मेरी वही छुक-छुक करती हुई रेलगाड़ी मुझे दे दे, क्योंकि लोहे और स्टील की बनी हुई गाड़ियाँ वहाँ नहीं रुकतीं जहाँ भोली-भाली ख़्वाहिशें मुसाफ़िरों की तरह इन्तिजार करती हैं, जहाँ मासूम तमन्नाएँ नन्हें-नन्हें होठों से बजने वाली सीटियों पर कान लगाए रहती हैं !

कोई मुझे मेरे घर के सामने वाला कुआँ वापस ला दे जो मेरी माँ की तरह ख़ामोश और पाक रहता था, मेरी मौसी जब मुझे अपने गाँव लेकर चली जातीं तो माँ ख़ौफज़दा हो जाती थी क्योंकि मैं सोते में चलने का आदी था, माँ डरती थी कि मैं कहीं आँगन में कुएँ में न गिर पड़ूँ, माँ रात भर रो-रोकर कुएँ के पानी  से कहती रहती कि, ऐ पानी ! मेरे बेटे को डूबने मत देना, माँ समझती थी कि शायद पानी से पानी का रिश्ता होता है, मेरे घर का कुआँ बहुत हस्सास था, माँ जितनी देर कुएँ से बातें करती थी कुआँ अपने उबलते हुए पानी को पुरसुकूत रहने का हुक्म देता था, शायद वह मेरी माँ की भोली-भाली ख्वाहिशों की आहट को एहतेराम से सुनना चाहता था ! पता नहीं यह पाकीज़गी और ख़ामोशी माँ से कुएँ ने सीखी थी या कुएँ से माँ ने..?

गर्मियों की धूप में जब टूटे हुए एक छप्पर के नीचे माँ लू और धूप से टाट के पर्दों के ज़रिए मुझे बचाने की कोशिश करती तो मुझे अपने आँगन में दाना चुगते हुए चूज़े बहुत अच्छे लगते जिन्हें उनकी माँ हर खतरे से बचाने के लिए अपने नाजुक परों में छुपा लेती थी ! माँ की मुहब्बत के आँचल ने मुझे तो हमेशा महफूज रखा लेकिन गरीबी के तेज झक्कड़ों ने माँ के खूबसूरत चेहरे को झुलसा-झुलसा कर साँवला कर दिया ! घर के कच्चे आँगन से उड़ने वाली परेशानी की धूल ने मेरी माँ का रंग मटमैला कर दिया ! दादी भी मुझे बहुत चाहती थी ! वह हर वक़्त मुझे ही तका करती, शायद वह मेरे भोले-भाले चेहरे में अपने उस बेटे को तलाश करती थी जो ट्रक ड्राइवर की सीट पर बैठा हुआ शेरशाह सूरी के बनाए हुए रास्तों पर हमेशा गर्मेसफ़र रहता था !!

इस किताब में जनाब मुनव्वर राना ने अपने 300 से भी अधिक शेर का संकलन किया है जो की एक औरत के  विभिन्न रूप जैसे की माँ, बहन, पत्नी, बेटी आदि पर लिखे गए है, जो की निम्न हैं..!!

Maa  माँ

Munawwar Rana Maa Part 1
Munawwar Rana Maa Part 2
Munawwar Rana Maa Part 3
Munawwar Rana Maa Part 4
Munawwar Rana Maa Part 5
Munawwar Rana Maa Part 6
Munawwar Rana Maa Part 7
Munawwar Rana Maa Part 8
Munawwar Rana Maa Part 9
Munawwar Rana Maa Part 10
Munawwar Rana Maa Part 11
Munawwar Rana Maa Part 12
Munawwar Rana Maa Part 13
Munawwar Rana Maa Part 14
Munawwar Rana Maa Part 15

Buzurg  बुजुर्ग

Munawwar Rana Maa Part 16

Khud  खुद

Munawwar Rana Maa Part 17
Munawwar Rana Maa Part 18
Munawwar Rana Maa Part 19

Bahan  बहन

Munawwar Rana Maa Part 20

Bhai  भाई

Munawwar Rana Maa Part 21
Munawwar Rana Maa Part 22

Bachche  बच्चे

Munawwar Rana Maa Part 23
Munawwar Rana Maa Part 24

Bahu  बहू

Munawwar Rana Maa Part 25
Munawwar Rana Maa Part 26

Vividh  विविध

Munawwar Rana Maa Part 27
Munawwar Rana Maa Part 28
Munawwar Rana Maa Part 29

Gurbat  ग़ुरबत

Munawwar Rana Maa Part 30

Beti  बेटी

Munawwar Rana Maa Part 31

skpoetry के पाठकों से अनुरोध है कि यदि उन्हें यह पुस्तक अच्छी लगे तो वे "माँ फ़ाउण्डेशन" के सहायतार्थ इसके प्रिंट संस्करण को भी खरीदें ! skpoetry में यह पुस्तक श्री मुनव्वर राना ने इस विचार से संकलित की है कि यह पुस्तक विश्व भर के लोगो तक पहुँच सके और लोग "माँ फ़ाउण्डेशन" के सहायतार्थ आगे आयें ! इस पुस्तक का मूल्य 25 रुपये है और पुस्तक नीचे दिये गये पते से प्राप्त की जा सकती है:- 
10-C, बोलाईदत्त स्ट्रीट, 
कोलकाता - 700073, पश्चिम बंगाल, भारत !



Munawwar Rana Maa Part 31

Gharon mein yun sayani betiyaan bechain rehati hain

Gharon mein yun sayani betiyaan bechain rehati hain,
Ki jaise saahilon par kashtiyaan bechain rehati hain.

Ye chidiya bhi meri beti se kitani milati-julti hai,
Kahin bhi shaakhe-gul dekhe to jhula daal deti hai.

Ro rahe the sab to main bhi phoot ke rone lagaa,
Warnaa mujhko betiyon ki rukhsati achchi lagi.

Badi hone ko hain ye muratein aangan mein mitti ki,
Bahut se kaam baaki hai sambhala le liya jaaye.

To phir jakar kahin Maa-Baap ko kuch chain padta hai,
Ki jab sasuraal se ghar aa ke beti muskurati hai.

Ayesa lagta hai ki jaise khtam mela ho gaya,
Uad gayi aangan se chidiyaan ghar akela ho gaya. !!

घरों में यूँ सयानी बेटियाँ बेचैन रहती हैं,
कि जैसे साहिलों पर कश्तियाँ बेचैन रहती हैं !

ये चिड़िया भी मेरी बेटी से कितनी मिलती-जुलती है,
कहीं भी शाख़े-गुल देखे तो झूला डाल देती है !

रो रहे थे सब तो मैं भी फूट कर रोने लगा,
वरना मुझको बेटियों की रुख़सती अच्छी लगी !

बड़ी होने को हैं ये मूरतें आँगन में मिट्टी की,
बहुत से काम बाक़ी हैं सँभाला ले लिया जाये !

तो फिर जाकर कहीँ माँ-बाप को कुछ चैन पड़ता है,
कि जब ससुराल से घर आ के बेटी मुस्कुराती है !

ऐसा लगता है कि जैसे ख़त्म मेला हो गया,
उड़ गईं आँगन से चिड़ियाँ घर अकेला हो गया !!


-- Munawwar Rana



Tuesday 18 September 2018

Munawwar Rana Maa Part 30


Ghar ki deewar pe kauve nahi achche lagte,
Muflisi mein ye tamaashe nahi achche lagte.

Muflisi ne saare aangan mein andhera kar diya,
Bhai khaali haath laute aur Behane bujh gayi.

Amiri resham-o-kamkhwaab mein nangi nazar aayi,
Garibi shaan se ek taat ke parde mein rehati hai.

Isi gali mein wo bhukha kisaan rahata hai,
Ye wo zameen hai jahan aasmaan rahata hai.

Dehleez pe sar khole khadee hogi jarurat,
Ab ase ghar mein jana munaasib nahi hoga.

Eid ke khauf ne rozon ka maza chhin liya,
Muflisi mein ye mahina bhi bura lagtaa hai.

Apne ghar mein sar jhukaye is liye aaya hun main,
Itani majduri to bachchon ki dua khaa jayegi.

Allaah gareebon ka madadgaar hai "Rana",
Hum logon ke bachche kabhi sardi nahi khaate.

Bojh uthaana shauk kahan hai majboori ka suda hai,
Rehate-rehate station par log kuli ho jaate hain. !!

घर की दीवार पे कौवे नहीं अच्छे लगते,
मुफ़लिसी में ये तमाशे नहीं अच्छे लगते !

मुफ़लिसी ने सारे आँगन में अँधेरा कर दिया,
भाई ख़ाली हाथ लौटे और बहनें बुझ गईं !

अमीरी रेशम-ओ-कमख़्वाब में नंगी नज़र आई,
ग़रीबी शान से इक टाट के पर्दे में रहती है !

इसी गली में वो भूखा किसान रहता है,
ये वो ज़मीं है जहाँ आसमान रहता है !

दहलीज़ पे सर खोले खड़ी होगी ज़रूरत,
अब ऐसे घर में जाना मुनासिब नहीं होगा !

ईद के ख़ौफ़ ने रोज़ों का मज़ा छीन लिया,
मुफ़लिसी में ये महीना भी बुरा लगता है !

अपने घर में सर झुकाये इस लिए आया हूँ मैं,
इतनी मज़दूरी तो बच्चे की दुआ खा जायेगी !

अल्लाह ग़रीबों का मददगार है "राना",
हम लोगों के बच्चे कभी सर्दी नहीं खाते !

बोझ उठाना शौक़ कहाँ है मजबूरी का सौदा है,
रहते-रहते स्टेशन पर लोग कुली हो जाते हैं !!


-- Munawwar Rana



Munawwar Rana Maa Part 29


Wo chidiyaan thi duayein padh ke jo mujhko jagati thi,
Main aksar sochtaa tha ye tilaawat kaun karta hai.

Parinde chonch mein tinke dabaate jate hain.
Main sochtaa hun ki ab ghar basa liya jaaye.

Aye mere bhai mere khoon ka badlaa le le,
Haath mein roz ye talwaar nahi aayegi.

Naye kamron mein ye cheezein puraani kaun rakhta hai,
Parindo ke liye sheharon mein paani kaun rakhta hai.

Jisko bachchon mein pahunchane ki bahut ujalat ho,
Usse kehiye na kabhi Car chalane ke liye.

So jaate hai footpaath pe akhbaar bichha kar,
Majdoor kabhi neend ki goli nahi khaate.

Pet ki khatir phootpaathon pe bech raha hun tasvirein,
Main kya janu roza hai ya mera roza toot gaya.

Jab us se guftgu kar li to phir shazaraa nahi poonchaa,
Hunar bakhiyaagiri ka ek turpaai mein khultaa hai. !!

वो चिड़ियाँ थीं दुआएँ पढ़ के जो मुझको जगाती थीं,
मैं अक्सर सोचता था ये तिलावत कौन करता है !

परिंदे चोंच में तिनके दबाते जाते हैं,
मैं सोचता हूँ कि अब घर बसा लिया जाये !

ऐ मेरे भाई मेरे ख़ून का बदला ले ले,
हाथ में रोज़ ये तलवार नहीं आयेगी !

नये कमरों में ये चीज़ें पुरानी कौन रखता है,
परिंदों के लिए शहरों में पानी कौन रखता है !

जिसको बच्चों में पहुँचने की बहुत उजलत हो,
उससे कहिये न कभी कार चलाने के लिए !

सो जाते हैं फुट्पाथ पे अखबार बिछा कर,
मज़दूर कभी नींद की गोलॊ नहीं खते !

पेट की ख़ातिर फुटपाथों पे बेच रहा हूँ तस्वीरें,
मैं क्या जानूँ रोज़ा है या मेरा रोज़ा टूट गया !

जब उससे गुफ़्तगू कर ली तो फिर शजरा नहीं पूछा,
हुनर बख़ियागिरी का एक तुरपाई में खुलता है !!


-- Munawwar Rana